शिवतांडव स्तोत्रं
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरीविलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि । धगद्धगद्धगज्ज्व लल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिःप्रतिक्षणं मम ॥३१॥

जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरीविलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्व लल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिःप्रतिक्षणं मम ॥३१॥
धराधरेन्द्रनन्दिनीविलास बन्धबन्धुरस्फुरद्दगन्तसंततिप्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥ ३४ ॥
जटाभुजं 'गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्ब कुङकुम द्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥ ३५ ॥
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः ।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ॥ ३६ ॥
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभानिपीतपञ्चसायकं नमन्नि लिम्पनायकम् |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महः कपालि संपदे शिरोजटालमस्तु नः ॥३७॥
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनंजयाधरीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥ ३८ ॥
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबन्धुकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तासिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगदधुरंधरः ॥ ३९ ॥
प्रफुल्ल नीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमच्छटा विडम्बिकण्टकं वरारुचिप्रबन्धवन्धुरम्
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदन्धकच्छिदं तमन्तकंच्छिदं भजे ॥ ४० ॥
अगर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरीरसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्तकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥ ४२ ॥
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमस्फुरद्धगद्धगद्विनिष्पतत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमि ध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवः शिवः ॥ ४२ ॥
दृषद्विचित्रतल्पयो र्भुजंगमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोप्रयोः सुहृदविपक्षपक्षयोः ।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥ ४३ ॥
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमु तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन् ।
वियुक्तलोललोचनाललामभाललग्नकः शिवेतिमन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥ ४४ ॥
इमं हि नित्यमे चमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन् स्मरन ब्रुवन् नरो विशुद्धिमेति संततम् ।
हरे गुरौ स भक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां शुभं करस्य चिन्तनम् ॥ ४५ ॥
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शंभुः ॥ ४६ ॥